एक समय की बात है- गीत चतुर्वेदी
चित्र - सागर अरणकल्ले
एक समय की बात है...
एक बीज था। उसके पास एक धरती थी। दोनों प्रेम करते थे। बीज, धरती की गोद में लोटपोट होता। वो हमेशा वहीं बने रहना चाहता था। धरती उसे बाँहों में बाँधकर रखती थी और बार-बार उससे उग जाने को कहती। बीज अनमना था। धरती आवेग में थी। एक दिन बरसात हो गई। बीज अपने उगने को और टाल नहीं सका। अनमना उगा और एक दिन उगने में रम गया। खूब उगा और बहुत ऊँचा पहुँच गया। धरती उगती नहीं, फैलती है। पेड़ कितना भी फैल जाए, उसकी उगन उसकी पहचान होती है। दोनों बहुत दूर हो गए। कहने को तो जड़ें धरती में रहीं, लेकिन जड़ को किसने पेड़ माना है आज तक? पेड़ तो वह है जो धरती से दूर हुआ। उससे चिपका रहता तो घास होता। पेड़ वापस एक बीज बनना चाहता है। पेड़ को दुख है कि अब वह वापस कभी वही एक बीज नहीं बन पाएगा। हाँ, हज़ारों बीजों में बदल जाएगा। धरती ठीक उसी बीज का स्पर्श कभी नहीं पा सकेगी। पेड़ उसके लिए महज़ एक परछाई होगा। मैं पेड़ के बहुत करीब जाता हूँ और उससे कहता हूँ, “सुनो, तुम अब भी एक बीज हो। तुम अभी भी उगे नहीं हो। तुम सिर्फ धरती की कल्पना हो।” सारे पेड़ कल्पना में उगते हैं। स्मृति में वे हमेशा बीज होते हैं।
- (पर) लोककथा का एक अंश
(चकमक जुलाई 2017 में प्रकाशित)
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