खिड़की, हवा, मछली और मैं... - बच्चों की रचनाओं से बनी अनूठी किताबें

 ’मेरा पन्ना’ रचनाओं से बनीं किताबें 

जब से चकमक शुरू हुई तब से बच्चों की रचनाएं 
'मेरा पन्ना' कॉलम में छपती आ रहीं हैं- 
कविताएँ, किस्से, कहानियाँ, चित्र... 
हमनें इन रचनाओं की 13 किताबें बनाई हैं। 

आइए जानते हैं इन किताबों को और पढ़ते हैं इन किताबों में से कुछ मज़ेदार किस्से.. 




चकमक (जनवरी, 1989 से दिसम्बर, 1991) में प्रकाशित, 
बच्चों की कहानियों का संकलन



साइकिल चलाई 
कृष्ण सिंह, बारह वर्ष, बरार, उदयपुर
(चकमक अप्रैल, 1991 में प्रकाशित)

एक दिन मेरे घर पर एक मेहमान आया। वह साथ में साइकिल भी लाया था। मैंने साइकिल देखी तो खुशी से झूम उठा। बाहर गया, साइकिल उठाई और थोड़ी दूर पैदल गया। वहाँ मुझे मेरे दोस्त मिले। उन्होंने कहा, “हम साइकिल पर बैठें?” मैंने हाँ तो कर दी लेकिन मैं किसी सवारी को बैठाकर नहीं चला सकता था। एक को पीछे बैठाया, एक को आगे फिर मैं स्वयं बैठ गया और साइकिल चलाने लगा। रास्ता थोड़ा ढलान वाला था। साइकिल ज़ोर से चलने लगी। हमें बहुत मज़ा आ रहा था, तभी साइकिल का सन्तुलन बिगड़ गया। साइकिल का अगला पहिया एकदम पीछे घूम गया। वह पहिया अब इस आकृति में बदल गया था। हम एक झटके से आगे जा गिरे। हाथ पैरों में चोट आई सो तो अलग लेकिन मेरा तो सिर भी फूट गया। किसी तरह खून रोका और वे दोनों मित्र पहिए 
को ठीक करने में लग गए। बड़े पत्थर से ठोककर उन्होंने थोड़ा-थोड़ा सीधा कर लिया था परन्तु कुछ तो बेंड रह ही गया था। आखिर हिम्मत कर साइकिल घर ले जाकर उसी जगह रख दी और हम सब छिप गए एक खण्डहर में। थोड़ी देर बाद मेहमान बाहर आया, साइकिल लेकर चला गया। लेकिन यह क्या, वह गुस्से में वापस आया और मेरे पिताजी से कहा कि उसकी साइकिल का एक पहिया बेंड हो गया है। हुआ यूँ कि वह कुछ दूरी पर गया और साइकिल पर बैठा तो पहिया इधर-उधर घूमने लगा। पिताजी को जब यह पता चला कि यह हरकत हमने की 
है तब उन्होंने हमें ढूँढा और उस खण्डहर में पा लिया। मेरी हालत देखी तो मुझे तुरन्त अस्पताल ले गए। दस-पन्द्रह दिन बाद मैं ठीक हो गया। तब मैंने सारी घटना सुना दी। पिताजी ने मुझे साइकिल का इतना शौकीन देखा तो एक छोटी साइकिल खरीद दी और उसे चलाना सिखा दिया।





नींद खुल गई
आदिल, सांतवी 

एक बार मैं जंगल में आम तोड़ रहा था तभी एक शेर मेरे पीछे खड़ा था। तभी मेरी नजर शेर पर पड़ी तो वह मेरे पीछे आने लगा। मैं घबरा गया। फिर मैं बहुत तेज भागने लगा। आड़े तेड़े रास्ते थे, लेकिन मैं भागता गया। एक पेड़ की डाल लटकी थी मैं उस पर चढ़ गया। तभी शेर चला गया। फिर मैंने सोचा मैं घर कैसे जाऊंगा। तभी वहाँ से एक हाथी पेड़ के पास से निकल रहा था कि मैं उसकी पीठ पर कूद गया। लेकिन वह जंगली, उसने मुझे सूंड़ से फेंका। मैं एक पेड़ पर जा फिका और नीचे आ गिरा। तभी दूसरे हाथी ने मेरी छाती पर पैर रखा तो मेरी नींद खुल गई। 


चित्र - निहाल बागमारे, तीसरी, भोपाल 



खिड़की, हवा, मछली और मैं
ज़ेबा ख़ातून

शाम का सुहाना मौसम था। उस दिन घर में मैं अकेली थी। मैंने कुर्सी उठाई और मेज़ के पास वाली खिड़की पर जाकर बैठ गई। मेज़ पर रखा हुआ शीशे का चौकोर-सा डिब्बा चमक रहा था। मैंने खिड़की खोली। खिड़की के खुलते ही हवा अपनी तेज़-तर्रार अदाओं के साथ कमरे में दाखिल होने लगी। खिड़की के शीशे पर आती मछली के डिब्बे की चमक ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं उसे निहारने लगी। उसमें रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं। और एक मैं थी कि बस उन्हें निहारे ही जा रही थी। अन्दर रखीं मछलियाँ कभी एक-दूसरे से आगे आतीं तो कभी पीछे। ऐसा लग रहा था मानो मछलियाँ रेस लगा रही हों। मछलियों के साथ-साथ बुलबुले भी दिखाई दे रहे थे। एक पल के लिए मैंने सोचा कि शायद मछलियों को गर्मी लग रही है। मेरे दिमाग में एक आइडिया आया, क्यों न मैं थोड़ी देर के लिए मछलियों को खोल दूँ। आखिरकार उन्हें भी तो अच्छी हवा खाने का हक है। यह सोच मैंने उन्हें खोल दिया और वो सब मुझे धन्यवाद देती हुईं खिड़की से बाहर हवा में उड़ने लगीं और सामने की नदी में चली गईं।

चित्र- शुभम लखेरा 



(इस किताब में शामिल रचनाएँ बाल विज्ञान पत्रिका चकमक के स्तम्भ 
 'चश्मा नया है' में प्रकाशित हुई हैं)



कहानी - अभिलाषा राजौरिया, पिपरिया, म.प्र. 
चित्रकार- रमेश हेंगाडी, संकेत पेठकर 
(चकमक नवम्बर 1985 में प्रकाशित)




मेरा बस्ता
स्वाति शर्मा

मेरा बस्ता बड़ा बेकार।
बोझ है इसमें बेशुमार

रोज़ रोज़ जाना पड़ता है
इसको स्कूल लेकर यार

कॉपी किताबें ढेर सारी
पन्ने...उफ! कई हज़ार

टिफिन है छोटा, बड़ी किताबें
एक विषय की कॉपी चार

मेरा बस्ता बड़ा बेकार
फिर भी रोज़-रोज़ जाते हैं
इसको स्कूल लेकर यार...




चित्र- अखिलेश बिसेन 



चकमक (जनवरी, 1989 से दिसम्बर, 1991) में प्रकाशित,
बच्चों द्वारा लिखी कविताओं का संकलन



(चकमक, जुलाई 1985 से दिसंबर 1988 में प्रकाशित 
बच्चों द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन)




कहानी: देवकरण पाटीदार, नेवरी, देवास, म.प्र. 
चित्र: ध्रुबा चटर्जी, वालेन मेनीज़ीज़ , अस्टिन रॉजर्स 
चकमक अक्टूबर 1991 में प्रकाशित 






पतंग उड़ी, उड़ी और उड़ती चली आसमान में। फिर जा अटकी चाँद पर। 
जब वापस धरती पर लौटी तो अपने साथ क्या लाई? पढ़ो और जानो...

प्रिया धुर्वेः भोपाल में गंगा नगर गोंड बस्ती में रहती हैं। वे सातवीं कक्षा में पढ़ाई करती हैं पर स्कूल जाना इन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है। प्रिया को मिट्टी के खिलौने और चित्र बनाना बहुत अच्छा लगता है। स्वभाव से अंतरमुखी प्रिया घर पर खाली समय में कहानियों की किताबें पढ़ती हैं। ज़्यादा लोगों से इनकी दोस्ती नहीं है पर अपने समुदाय के बच्चों के साथ खेलना इन्हें अच्छा लगता है। इस किताब के चित्र इन्होंने मुस्कान संस्था के सेंटर में पढ़ाई करने के दौरान सौम्या मेनन से एनिमेशन सीखते हुए बनाए हैं।




गाँव में चले लठ 
हरनाम सिंह ठाकुर

सदा हमारे गाँव होती नहीं लड़ाई 
कभी-कभार जो होत है हल्ला, सबको दिया सुनाय

कुन्ना मुन्ना दो भइया थे, एक दिन उनमें ठनी लड़ाई 
देखन को सब दौड़े, छोड़-छोड़कर अपनी पढ़ाई

कुन्ना बोलो मुन्ना कान खोलकर सुन ले आज
बंधिया फोड़ी खेत की तूने, तेरो तो मोड़ा मर जाय

गुस्सा आ गई मुन्ना को उसने लठिया लई निकार
 गाली गुप्ता हो रही, मुन्ना करन लगे तकरार

हल्ला सुन के मुकद्दम आये और आये गाँव कुटवार 
सयाने बड़े बहुत से आये, और आये पंच मुख्तार

कुन्ना बोलो सब पंचों से, जा अर्जी सुन लो महाराज
इसने बंधिया फोड़ी खेत की, इसका निर्णय दियो कराय

बुलवाए फेर मुन्ना को और पंचों ने दिया हुकम सुनाय 
माफी मंग ले तू कुन्ना से, तेरी खता माफ हो जाय

अभिमानी मुन्ना फिर गरजो, और पंचों की मानी नाय 
सब पंचों ने किया फैसला, जात से बन्द दियो कराय

जैसो झगड़ा हुआ गाँव में, मैंने तुमको दिया बताय 
जे कुछ गल्ती हुई है इसमें, उसको देना माफ कराय 




(चकमक जुलाई 1985 से दिसंबर 1988 में प्रकशित बच्चों द्वारा लिही गई कविताओं का संकलन)






अगर सड़क पर चलते-चलते अचानक तुम्हें एक साँप मिल जाए तो तुम क्या करोगे? क्या सोचोगे? जवाब बहुत मुश्किल नहीं। पर इस मुलाकात के बारे में साँप ने क्या सोचा होगा, कभी सोचा है तुमने? इस कहानी में पढ़ो एक साँप के मन की बात...

बिदिया पुरबिया: गौतम नगर, भोपाल की कच्ची बस्ती में रहती हैं और छठवीं की पढ़ाई कर रही हैं। कहानियाँ पढ़ने और लिखने का शौक है। चित्र कहानियों द्वारा अपनी भावनाओं और विचारों को बखूबी अभिव्यक्त करती हैं। शाम को बस्ती के बच्चों व मम्मी-पापा को कहानियाँ पढ़कर सुनाती हैं। छुट्टी के दिन बिदिया अपनी मम्मी के साथ बीनने जाती है। वे बारहवीं से आगे पढ़ना चाहती हैं और बड़ा चित्रकार बनना चाहती हैं, जो अलग-अलग तरह के चित्र बनाए और जिसके चित्रों को हर कोई देखे। इस किताब के चित्र इन्होंने मुस्कान संस्था के सेंटर में पढ़ाई करने के दौरान सौम्या मेनन से एनिमेशन सीखते हुए बनाए हैं।





चकमक में छपी माथापच्ची गतिविधियों व बच्चों के चित्रों
और पहेलियों का संकलन 




तीस की मुर्गी बीस में 
गोकुल कुमार छठवीं, बोईजगवाड़ा, 
देवास, मध्य प्रदेश जुलाई 1990


चित्र: निदा, प्रगत शिक्षण संस्थान, फलटण, सतारा, महाराष्ट्र


मेरे दोस्त बाज़ार जा रहे थे। मैंने पूछा कि तुम कहाँ जा रहे हो, तो उन्होंने कहा कि हम बाज़ार जा रहे हैं। मैंने कहा किमैं भी चलता हूँ। फिर मैंने कहा कि मेरे पास तो पैसे ही नहीं हैं, मैं जाकर क्या करूँगा। फिर मैंने सोचा कि मेरे घर में मुर्गियाँ बहुत सारी हैं, एक मुर्गी को पकड़कर बाज़ार ले चलते हैं। हम फिर उस मुर्गी को पकड़कर बाज़ार ले गए।फिर मैंने कहा कि मुर्गी ले लो। एक दुकानदार ने कहा कि, क्यों रे मुर्गी कितने में देता है। मैंने कहा कि पच्चीस रुपए लूँगा। उसने कहा कि देना है, तो ये ले दस रुपया। मैंने कहा कि दसरुपए में नहीं दूँगा। फिर मैं आगे गया, तो फिर मुझे एक ने और पूछा कि आ रे मुर्गीवाले, इधर आ। मैं गया। उसने पूछा कि यह बेचने को लाया है, तो मैंने कहा कि हाँ। उसने कहा कि इसकी कीमत क्या लेगा। मैंने कहा कि पच्चीस रुपए। उसने कहा कि फिर मैं आखिरी बार कहता हूँ, तुझे बीस रुपया दूँगा। मैंने कहा कि ला दे। फिर मैंने बीस रुपए लेकर मुर्गी दे दी। फिर मैं अपने दोस्तों के साथ घूमता रहा। फिर मैंने कहा किचलो नोटबुक खरीद लेते हैं। मैंने पाँच रुपए की नोटबुक खरीदी। फिर मैं अपने दोस्तों के साथ घर गया। फिर मेरे भैया ने पूछा कि तूने मुर्गी कितने में बेची, तो मैंने कहा कि बीस रुपए में। मेरे भैया ने कहा कि तीस रुपए की मुर्गी बीस में ही दे आया। भैया ने मुझे दो चाँटे लगाए और कहा अब ऐसा कभी मत करना। 


रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के बारे में लिखे बच्चों के किस्से-कहानियाँ, उनके विचार और अनेक चीज़ों पर उनकी टिप्पणियाँ सब इन रचनाओं में पढ़ने को मिलेंगी। कहीं आराम से बैठकर पढ़ना, एक बार से मन नहीं भरने वाला।





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