किताब अंश - बोरेवाला- जयश्री कलत्तिल



 डिफरेंट टेल्स क्षेत्रीय भाषा की कहानियाँ ढूँढ-ढूँढकर निकालता है, ऐसी कहानियाँ जो ज़िन्दगी की बातें करती हैं- ऐसे समुदायों के बच्चों की कहानियाँ जिनके बारे में बच्चों की किताबों में बहुत कम पढ़ने को मिलता है। कई सारी कहानियाँ लेखकों के अपने बचपन का बयान करते हुए बड़े होने के अलग-अलग ढंगों को प्रस्तुत करती हैं, प्राय: एक प्रतिकूल दुनिया में जहाँ वे हमजोलियों, पालकों और अन्य वयस्कों से नए सम्बन्ध बनाते हैं। ज़ायकेदार व्यंजनों, छोटे-छोटे जुगाड़ू खेलों, स्कूल के अनापेक्षित सबकों और दिलदार दोस्तियों के माध्यम से ये कहानियाँ हमें एक दिलकश सफर पर ले जाती हैं। इसी सीरीज़ की एक किताब के बारे में आज हम बता रहे हैं जिसका नाम है' बोरेवाला' इसे जयश्री कलत्तिल ने लिखा है। अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद शशि सबलोक ने किया है। चित्रांकन राखी पेसवानी ने किया है। इस किताब के चित्रों में भी आपको एक अनूठापन मिलेगा। पेश है इस किताब के कुछ अंश। 





'वहाँ छोटे-से बल्ब की मद्धम रोशनी में चाकप्रान्दन खड़ा नज़र आया। मैं जानती थी कि वो भूखा होगा और कुछ खाने की तलाश में आया होगा। अम्मा हमेशा उसे थोड़ी काँजी देती थीं। पर मुझे उससे थोड़ा डर लगता था। और आज काँजी थी भी नहीं। मैं चुपचाप रहूँ तो क्या पता वो चला ही जाए!बड़ा अजीब था चाकप्रान्दन। वो फटी-पुरानी बोरियों के थेगड़ों को जैसे-तैसे सिलकर पहनता था। इसीलिए लोग उसे “चाकप्रान्दन”पुकारते। एक दिन रशीदा की दादी खदीजुम्मा ने बताया कि जब वह मेलेकरा में पहली बार नज़र आया था तो बहुत बढ़िया कपड़े पहनता था। और बहुत स्मार्ट दिखता था। कोई नहीं जानता वो कहाँ से आया। एक दिन वो आया और फिर कभी नहीं गया।'





'उस रात मैं अच्छे से सो नहीं पाई। एक मच्छर लगातार मेरे कानों में भिनभिनाता रहा। और बीच-बीच में जब झपकी लगी भी तो एक ही सपना चलता रहा। वो यह कि फातिमा टीचर ने मुझ अकेली को क्लास में रोक लिया है और कह रही हैं कि जब तक मेरी लिखाई नहीं सुधरती वो मुझे छोड़ेंगी नहीं। पर जब मैं एक सीधी लकीर में लिखने की कोशिश करती तो मेरी लाइन “त्रिशूर से टिम्बकटू” की ओर चल देती। सजिचेची ऐसा ही कहती थी।'




 मैं “बालरमा” पढ़ने लगी। खेलने और देर तक धूप में रहने से मेरी आँख लग गई। जब उठी तब तक अँधेरा हो गया था। मैं बत्ती जलाए बगैर लेटी रही। तभी पीछे के दरवाज़े पर ज़ोर का शोर हुआ। मैंने रसोई की खिड़की से देखा। चाकप्रान्दन खड़ा था।हालाँकि मैंने तय कर लिया था कि आज वो आया तो उसे खाना दूँगी। पर मुझे अभी भी डर लग रहा था। मैं ऊपर गई। सोचा अम्मा को बुला लाऊँ। पर कोई जवाब न मिला।मैं फिर से रसोई में आई और थोड़ा-सा दरवाज़ा खोल दिया। चाकप्रान्दन ने मुझे देखा और अपनी प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी। वो जगह-जगह से मुड़ी-तुड़ी और पिचकी हुई थी। मैंने उससे इन्तज़ार करने को कहा और रसोई में आकर उसकी प्लेट में चावल और साम्भर परोस दिया। एक पापड़ भी रख दिया। फिर वह प्लेट रसोई के दरवाज़े के बाहर रखकर जल्दी से पीछे हट गई। चाकप्रान्दन ने प्लेट उठाकर अपनी प्लेट में पलट दी। फिर वह वहीं बैठकर खाने लगा मैं उसे खाते देखती रही। उसके बाल धूल से सने थे। दाढ़ी घनी थी। माथे पर ज़ख्म का एक छोटा-सा निशान था। दोनों हाथों पर मच्छरों के काटने के निशान थे। उसने अपने बोरे में मुँह घुसाकर कुछ ढूँढा और टीन का एक मग्गा निकाल लिया। यह उसकी प्लेट जैसा ही मुड़ा-तुड़ा था। मैं मुड़ी और जग में पानी ले आई।फिर वहीं बैठकर चुपचाप उसे देखने लगी। कोशिश कर रही थी कि उसे घूरती न रहूँ। वह बिना बहुत चबाए जल्दी-जल्दी खा रहा था। खाने के बाद वो “कल” जैसा कुछ बोला और चला गया।' 



 

उसी समय मैंने रघु मामन और उनके दोस्तों को देखा। उनके साथ उनकी क्रिकेट टीम का विकेट कीपर हमीदक्का था, वीडियो की दुकान वाला दिलीपन और कुछ और लोग थे जिन्हें हम नहीं पहचानते थे। हम दौड़ते हुए गेट पर गए, फिर सड़क पार कर पोस्ट ऑफिस पहुँच गए। वहाँ एक कोने में चाकप्रान्दन बैठा था। भीड़ को देखते ही वो उठा और उसने अपने बोरे को कसकर पकड़ लिया। रघु मामन सीढ़ी चढ़ बरामदे पर पहुँचे और चाकप्रान्दन से बोले, “चलो हमारे साथ। हम सब तालाब में साथ-साथ नहाएँगे।”चाकप्रान्दन ने भागने की कोशिश की। पर लोगों ने उसे पकड़ लिया। रघु मामन ने तौलिए से उसके दोनों हाथ उसकी पीठ के पीछे किए और कभी खींचते, कभी धकेलते, कभी उसके साथ चलते उसे तालाब तक ले आए। मुझे बड़ी-बड़ी सुबकियाँ सुनाई दे रही थीं -- चाकप्रान्दन बिना कुछ कहे रोता जा रहा था। 






किताब यहाँ से ले सकते हैं।

www.eklavya.in
www.pitarakart.in



 






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