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साहित्य और पढ़ना सीखना के इर्द -गिर्द कुछ बातें - सुशील शुक्ल

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शिक्षा   के अधिकार के मिल जाने से अब हमारी आँखों ने इस सपने के लिए तो जगह बनानी शुरू कर दी है कि अपने देश का हर बच्चा आने वाले चार-पाँच सालों में स्कूल में प्रवेश पा सकेगा। पर हम अपने ज़्यादातर स्कूलों को बच्चों के लिए एक सुखद जगह में नहीं ढाल पाए हैं। नित नया सीखने के उत्साह से भरे बच्चे एक दिन स्कूल में प्रवेश लेने के लिए घर से निकलते हैं। उस घर से जहाँ उन्हें प्रश्न पूछने की , अपने मन का कुछ करने की , ज़िद करने की , लाड़-दुलार की , मान-मनौव्वल की सीमित ही सही , पर आज़ादी हासिल होती है। सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर घरों में बच्चों की ज़िन्दगी इतनी सुखद भले ही नहीं होगी पर वे घर पर एक अत्यन्त सक्रिय सदस्य की भूमिका निभा रहे होते हैं। जहाँ मध्यमवर्गीय बच्चे घर के कामों का खेल खेलते हैं , वहाँ ये बच्चे सचमुच घर के कामों में हाथ बँटा रहे होते हैं। पर इन दोनों ही तरह के बच्चों को स्कूल पहुँचकर निराशा हाथ लगती है। उनके तमाम अनुभव स्कूल में किसी काम नहीं आते। स्कूल इन तमाम अनुभवों को नज़रअन्दाज़ कर , पोंछकर पढ़ाई शुरू करता नज़र आता है। अपने जीवन में भाषा से अच्छा खासा काम चला रहे बच्चे को - अ - से प