बिना नाम की नदी - केदारनाथ सिंह



 केदारनाथ सिंह का जन्‍म 7 जुलाई 1934 में में उत्‍तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गॉंव में हुआ था। वे साहित्य जगत में यह एक विख्यात लेखक के रूप में जाने जाते है जो की भारतीय कवियों में अपनी एक अलग पहचान बनाकर रखते थे।  वे  दिल्ली में रहकर भी बलिया और बनारस की मिट्टी को बहुत याद किया करते थे। 

प्रस्तुत है चकमक में प्रकाशित उनकी कुछ कविताएँ। 


1. कपड़े सूख रहें हैं

हज़ारों-हज़ार
मेरे या न जाने किस के कपड़े
रस्सियों पर टंगे हैं
और सूख रहे हैं
 
मैं पिछले कई दिनों से
शहर में कपड़ों का सूखना देख रहा हूँ
 
मैं देख रहा हूँ हवा को
वह पिछले कई दिनों से कपड़े सुखा रही है
उन्हें फिर से धागों और कपास में बदलती हुई
कपड़ों को धुन रही है हवा
 
कपड़े फिर से बुने जा रहे हैं
फिर से काटे और सिले जा रहे हैं कपड़े
आदमी के हाथ
और घुटनों के बराबर
 
मैं देख रहा हूँ
धूप देर से लोहा गरमा रही है
हाथ और घुटनों को
बराबर करने के लिए
 
कपड़े सूख रहें हैं
और सुबह से धीरे-धीरे
गर्म हो रहा है लोहा।



चित्र - शौर्य प्रताप 


2. कपास का फूल

आदमी ने ही खोजा होगा
पृथ्वी पर पहला कपास का फूल
 
पर पहला झिंगोला
कब पहना उसने
पहले तागे से पहली सुई की
कब हुई थी भेंट
यह भूल गई है हमारी भाषा
जैसे अपनी कमीज़ पहनकर
भूल जाते हैं हम
अपने दर्ज़ी का नाम
 
पर क्या कभी सोचा है आपने
वह जो आपकी कमीज़ है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है
जिसे पहन रखा है आपने
 
जब फ़ुर्सत मिले
तो कृपया एक बार इस पर सोचें ज़रूर
कि इस पूरी कहानी में सूत से सुई तक
सब कुछ है
पर वह कहां गया
जो इसका शीर्षक था।
 
(कपास के फूल कविता का एक अंश )



3. सन 47 को याद करते हुए

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
 
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से आख़िर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोडकर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ?
 
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है? 





चित्र-कनक शशि 

4. बिना नाम की नदी
 
मेरे गाँव को चीरती हुई
पहले आदमी से भी बहुत पहले से
चुपचाप बह रही है वह पतली-सी नदी
जिसका कोई नाम नहीं
तुमने कभी देखा है,
कैसी लगती है बिना नाम की नदी?
कीचड़, सिवार और जलकुंभियों से भरी
वह इसी तरह बह रही है पिछले कई सौ सालों से
एक नाम की तलाश में
सारे गाँव की नदी
 
सूरज निकलने के काफी देर बाद
आती हैं भैंसें
नदी में नहाने के लिए
नदी कहीं गहरे में हिलती है पहली बार
फिर आते हैं झुम्मन मियाँ
साथ में लिए हुए बंसी और चारा
 
नदी में पहली बार चमक आती है
जैसे नदी पहचान रही हो झुम्मन मियाँ को
दिन-भर में कितनी मछलियाँ
फँसती हैं उनकी बंसी में?
कितने झींगे कितने सिवार
पानी से कूदकर आ जाते हैं
उनके थैले के अंदर
कोई नहीं जानता
 
नदी को कौन देता है नाम
तुमने कभी सोचा है?
 
क्या सुबह से शाम तक
नदी के किनारे
नदी के लिए किसी नाम की तलाश में
एकटक बैठे रहते हैं झुम्मन मियाँ
?



चित्र- अतनु रॉय 


5. पाँच पिल्ले
 
कुतिया ने जने पाँच पिल्ले
पाँचों स्वस्थ- सुन्दर
नरम
झबरे
गदबदे पिल्ले
अब सूरज की ओर मुँह किए
पाँचों खड़े हैं
कूँ-कूँ करते
चकित-हैरान
मानो पूछ रहे हों
कि लो, हम तो आ गए
अब क्या करें
इस दुनिया का
?

 

चित्र- शोभा घारे 


 6. पशु मेला
 
कातिक शाम
ट्रक चले जा रहे हैं
ट्रकों में लादे हैं बैल
ददरी मेले में ।
 
दूर पंजाब से आ रहे हैं
लंबे-गठे हुए
पुत्ठेदार बैल
बिकेंगे मेले में घोड़ों के मोल।

कितना अद्भुद है
कि बैलों को
मेले की शाम ने
सुन्दर चमचमाते घोड़ों में बदल दिया है।
 
धूल में डूबा हुआ
भागा जा रहा है ट्रक
ट्रक को जल्दी है
मेले में पहुँचने की
ट्रक में खड़े हैं बैल थके हुए
ऊबे हुए
चुपचाप ताकते हुए।
 
दूर पंजाब से आ रहे हैं
सिर्फ कभी-कभी
ट्रक के हिलने से
बज उठती है बैलों के
गले की घंटी
फिर एक बैल
चौंककर
देखता है दूसरे को
मानो पूछता हो-
भैया, मेला अभी कितनी दूर है ?

 

चित्र – शुद्धसत्व बसु 









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