Posts

Showing posts from August, 2021

अगर-मगर : गुलज़ार

Image
  चित्र - अतनु रॉय  आज गुलज़ार साब का जन्मदिन है। 87 बरस के हो गए हैं।  चकमक की पूरी टीम की तरफ से गुलज़ार साब को जन्मदिन की बहुत मुबारकबाद।  उनके गीतों और नज़्मों को तो आपने सुन ही रखा है। आज हम आपको बच्चों के सवाल जवाब की एक श्रंखला 'अगर-मगर' के कुछ अंश दे  रहे हैं।   बच्चों ने उनसे कुछ सवाल पूछे हैं। आइए देखें की गुलज़ार साब ने क्या जवाब दिए हैं।  1. यदि किताबें न होतीं तो क्या होता? - खुशप्रीत कौर, छठी, रा. मा. वि. धर्मापुरा, सिरसा हरियाणा - मास्टर तो तब भी होता। स्कूल तो जाना ही पड़ता।  2. अगर दुनिया चपटी होती तो? - आदित्य जैन, चौथी, डीपीएस पुणे - तो आप गोल होते। 3. पेड़-पौधे क्यों नहीं चलते हैं? - खिरोद यादव, सातवीं, शा.उ.प्रा.शाला, बोईरमल, महासमुन्द (छत्तीसगढ़) - पेड़ों के गर गाँव होते जाकर सब जंगल में रहते इन्सान के हाथों कटने से क्या, तब बच जाते? 4. सपने क्यों आते हैं? - राजेश, आठवीं, पूर्व मा. विद्यालय गर्गन पूरवा, अतर्रा, बाँदा (उ.प्र.) - नींद में सोचते रहने से। 5. आप सिर्फ सफेद रंग के वस्त्र क्यों पहनते हैं? - लक्ष्य सिंह, चौथी, डीपीएस ...

तालीम हमारा हक़ है - मलाला

Image
  Malala in her childhood home (Image source- podium.bulletin) 12 जुलाई 1997 में जन्मी मलाला, ज़ियाउद्दीन युसुफज़ई की बेटी है। ज़ियाउद्दीन स्वात वादियों के बीच बसे मिन्गोरा कस्बे में खुशाल पब्लिक स्कूल चलाते हैं। यह नाम उन्होंने 17वीं शताब्दी के प्रसिद्ध पशतून नेता और कवि खुशाल खान खटक के नाम पर रखा है जिन्होंने स्वात की एकता को कायम रखने में अहम भूमिका निभाई। मलाला का नाम भी उन्होंने मावन्द की एक युवा कवियत्री के नाम पर रखा जिसने स्वात की सेना के साथ अँग्रेज़ी  फौजों का सामना किया और लड़ाई में मारी गई। जब मलाला ने यह ब्लॉग लिखा तब वह केवल 11-12 साल की थी। आज वो 24 की है। बीबीसी में  प्रकाशित इस डायरी से बाहरी दुनिया में मलाला की पहचान बनी। उस पर फिल्म बनी। उससे पाकिस्तानी  टीवी पर कई इंटरव्यू भी लिए गए। पाकिस्तान के “मॉर्निंग विद फरहा” नाम के टीवी  कार्यक्रम में मलाला से पूछा गया कि आमतौर पर तो बच्चों को छुट्टियाँ पसन्द होती हैं तो स्कूल बन्द करा  दिए जाने पर तुम खुश क्यों नहीं हुई? उसका जवाब था,  “वो छुट्टियाँ नहीं पाबन्दी थी। दहशतगर्दों ने कहा - तुम स्कू...

एक समय की बात है- गीत चतुर्वेदी

Image
  चित्र - सागर अरणकल्ले  एक समय की बात है... एक बीज था। उसके पास एक धरती थी। दोनों प्रेम करते थे। बीज, धरती की गोद में लोटपोट होता। वो हमेशा वहीं बने रहना चाहता था। धरती उसे बाँहों में बाँधकर रखती थी और बार-बार उससे उग जाने को कहती। बीज अनमना था। धरती आवेग में थी। एक दिन बरसात हो गई। बीज अपने उगने को और टाल नहीं सका। अनमना उगा और एक दिन उगने में रम गया। खूब उगा और बहुत ऊँचा पहुँच गया। धरती उगती नहीं, फैलती है। पेड़  कितना भी फैल जाए, उसकी उगन उसकी पहचान होती है। दोनों बहुत दूर हो गए। कहने को तो जड़ें धरती में रहीं, लेकिन जड़ को किसने पेड़ माना है आज तक? पेड़ तो वह है जो धरती से दूर हुआ। उससे चिपका रहता तो घास होता। पेड़ वापस एक बीज बनना चाहता है। पेड़ को दुख है कि अब वह वापस कभी वही एक बीज नहीं बन पाएगा। हाँ, हज़ारों बीजों में बदल जाएगा। धरती ठीक उसी बीज का स्पर्श कभी नहीं पा सकेगी। पेड़ उसके लिए महज़ एक परछाई  होगा। मैं पेड़ के बहुत करीब जाता हूँ और उससे कहता हूँ, “सुनो, तुम अब भी एक बीज हो। तुम अभी भी उगे नहीं हो। तुम सिर्फ धरती की कल्पना हो।” सारे पेड़ कल्पना में उगते हैं। स्...

किताब अंश - बोरेवाला- जयश्री कलत्तिल

Image
 डिफरेंट टेल्स क्षेत्रीय भाषा की कहानियाँ ढूँढ-ढूँढकर निकालता है, ऐसी कहानियाँ जो ज़िन्दगी की बातें करती हैं- ऐसे समुदायों के बच्चों की कहानियाँ जिनके बारे में बच्चों की किताबों में बहुत कम पढ़ने को मिलता है। कई सारी कहानियाँ लेखकों के अपने बचपन का बयान करते हुए बड़े होने के अलग-अलग ढंगों को प्रस्तुत करती हैं, प्राय: एक प्रतिकूल दुनिया में जहाँ वे हमजोलियों, पालकों और अन्य वयस्कों से नए सम्बन्ध बनाते हैं। ज़ायकेदार व्यंजनों, छोटे-छोटे जुगाड़ू खेलों, स्कूल के अनापेक्षित सबकों और दिलदार दोस्तियों के माध्यम से ये कहानियाँ हमें एक दिलकश सफर पर ले जाती हैं। इसी सीरीज़ की एक किताब के बारे में आज हम बता रहे हैं जिसका नाम है' बोरेवाला' इसे जयश्री कलत्तिल ने लिखा है। अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद शशि सबलोक ने किया है। चित्रांकन राखी पेसवानी ने किया है। इस किताब के चित्रों में भी आपको एक अनूठापन मिलेगा। पेश है इस किताब के कुछ अंश।  'वहाँ छोटे-से बल्ब की मद्धम रोशनी में चाकप्रान्दन खड़ा नज़र आया। मैं जानती थी कि वो भूखा होगा और कुछ खाने की तलाश में आया होगा। अम्मा हमेशा उसे थोड़ी काँजी देती थीं। पर...